कविताएँ

श्रद्धा (श्रद्धा यादव)
की कुछ कवितायें उत्तरवार्ता में प्रकाशित हुयी हैं जिन्हें मैं यहाँ दे रहा हूँ।
(सौजन्य "उत्तरवार्ता " श्री अमलेश प्रसाद जी ने प्रकाशित की हैं।)
कविताएं - दलितवाद, एमएच 370 और बुद्धिजीवी: श्रद्धा यादव

Amalesh Prasad (Editore)
1. दलितवाद
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ब्राह्मणवाद की तरह
कुकुरमुत्ता-सा पनपने लगा है
दलितवाद
जहाँ निरंकुशता है जाति की
पहले बताओ जाति
फिर संवेदनाओं की बात होगी
जो न होगे तुम दलित
तो बांधो विचारों की पोटली
और खोजो कोई और खेत
जहाँ बीजो, पनपाओ
विचारों के बीज
तुम दलितों के लिए
अछूत
दलित और गैर-दलित की
साहित्यिक दुनिया में
दलितवाद की शक्ल में
इस नवब्राह्मणवाद की पैदाइश
चेताती है बार-बार
बुद्ध के शरणागत दलितों
संकीर्ण मत बनो
पनपों, फलो फूलो और फ़ैल जाओ
सभी नस्लों की नसों में
अमृत बनकर
विष पी कर
फूल खिलानेवाले हाथ
गालियों पर भी
मुस्कुरानेवाले होंठ
वज्र से भी कठोर
है जिन का शरीर
फूल से भी कोमल है
जिन का मन
सवर्णो की तरह नहीं
उनसे श्रेष्ठ हो तुम
घृणा पर बसे उनके साम्राज्य को
तोड़कर
बनाओ एक नया समाज
जिसमें कुकुरमुत्ता और गुलाब को मिले
एकसमान सम्मान।
- श्रद्धा यादव
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2. एमएच 370
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गुमशुदा है आसमाँ में
या जमींदोज हो गया
या समा गया है चुपचाप
सागर की अतल गहराइयों में
आदमी अपनी ही खोज को
खोज रहा है यहाँ वहां
पूरे संसार में
कहीं नहीं मिला अब तक नामोनिशां
कितने अरमानों ने भरी थी उड़ान
आखिरी उस दिन
अगले पल से अनजान
हँसी ठिठोली में
बीत रहा था सफर
क्या जाने क्या हुआ
क्या घटा क्या बढ़ा
वह गुम कहाँ हुआ
अब तक नहीं आई खबर
चिंता नहीं टीन की छत
और फर्श की
चिंता है असंख्य
टिमटिमाती जिंदगियों की
जो रोज आती जाती हैं
वायु की गति से
जान हथेली पर लिए
घूमता है हर शख्स
सड़क पर, हवा में, पानी पर
साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक
हर मानव अपनी ही खोज की गति पर सवार
जोखिम में डालता है
प्रतिपल अपने प्राण।
-श्रद्धा यादव
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3. बुद्धिजीवी
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सोचने को कुछ भी सोच सकते हैं
हवा पहाड़ पानी कोई बाधा नहीं
शीत घाम से परे पंछी-सी सोच
कभी इस फुनगी पर तो कभी उस पार
भटकती भटकाती बीहड़ों में रास्ता बनाती
कितनी हलकी लगती है सोचने में सोच
पर जब वही सोच थोड़ा सिमट जाती है
घर की ढ़हती दीवार और अपनों पर टिक जाती है
रोटी दाल की चिंता धीरे-धीरे गहराती है
प्रेम प्यार और कोमल कल्पनाएं विलीन हो जाती हैं
तब वही फूलसी हलकी सोच भारी हो जाती है
यह भारी सोच और भारी होती जाती है
जब पडोसी कान या घर बनता है
रिश्तेदार के घर जश्न मनता है
अपना बच्चा खुरचन के लिए तरसता है
तब मेरी सोच मुझे विद्रोही ब ना डालती है
चोरी डाके के सारे पाठ पढ़ा डालती है
तब मैं बाबू बनकर घूसखोरी करता हूँ
बनिया बनकर जमाखोरी करता हूँ
डाकू बनकर डकैती करता हूँ
नेता बनकर देश लूटता हूँ
सोच मुझे सब कुछ बना डालती है
कुछ नहीं बनाती तो अच्छा आदमी नहीं बनाती
इस अच्छे आदमी को जब
मैं सड़क पर रिक्शा खींचते देखता हूँ
पीठ पर बोझ उठाते देखता हूँ
तो आत्मग्लानि में शराब का ग्लास गटक जाता हूँ
तब जाके मैं सारी चिंताओं को गटक
अपनी सोच को हल्का बनाते हुए
वज़नी बातों का दम्भ भरनेवाला
बुद्धिजीवी कहलाता हूँ।
-श्रद्धा यादव
राजभाषा विभाग
गृहमंत्रालय, भारत सरकार


श्रद्धा यादव 


समकालीन हिंदी उपन्यासों में लोक संस्कृति के विभिन्न रूपों पर शोधकार्य में संलग्न श्रद्धा की रुचि सृजनात्मक लेखन, कविता एवं ललित कलाओं में है। विभिन्न साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। 

संप्रति- भारत सरकार के राजभाषा विभाग में कनिष्ठ हिंदी अनुवादक। 

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अनुभूति में श्रद्धा यादव की रचनाएँ 
नई रचनाओं में- 
नियति 
मुर्दाघर 
यातना गृह-  
यातना गृह-  
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छंदमुक्त में- 
एम्मा के नाम पाती 
नन्हीं सी चिड़िया 
भय है 
भोली सी चाहत 
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नियति  
हर बार तुम्हें चुन लेती है 
नियति भी, नियोक्ता भी 
युद्ध को खत्म करने की कीमत 
तुम्हारी पीढियों ने चुकाई है 
और अभी पूरी तरह से  
उबरी भी नहीं थीं उनकी संतानें 
कि नियति ने  
फिर से चुन लिया तुम्हें  
प्राकृतिक आपदा के रुप में 
विकिरण के खतरों को 
गले लगाने के लिए  
जब नियति 
बड़ी हो जाती है  
चुने हुए फैसलों से 
तब हार जाता है मनुष्य  
अपने सारे 
संसाधनों से लैस  
होने के बावजूद। 
२८ नवंबर २०११ 
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मुर्दा-घर 
अपनी चुप्पी को 
जब हम खामोशी समझ लेते हैं 
सारी दुनिया के सहारे 
बिम्ब नया गढ़ लेते हैं 
बहुत सारी घुटन को  
इकठ्ठा कर पी लेते हैं 
पसरे हुए सन्नाटे को 
सब ठीक समझ लेते हैं 
हर जरूरी प्रश्न से 
मुहं मोड़ने कि गुन्जाइश  
जब कर लेते है 
तब गैर जरूरी हो जाती हैं 
सब क्रन्तियाँ  
और मुर्दा-घर बन जाती है  
यह दुनिया। 
२८ नवंबर २०११ 
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यातना गृह - 
 
जो भी मै कहना चाहती हूँ 
उसमे कुछ भी नया नहीं  
सब पुराना है  
मेरा मकसद तो  
बस ये याद दिलाना है 
आततायी नहीं मरते  
मरती हैं यातनाएँ  
परावर्तित नहीं होती  
उनकी आत्माएँ। 
इतिहास रचता है 
विजेता आपने अनुरूप  
हो चाहे वह कैसा भी  
होती है उसकी सर्वत्र पूजा ही। 
सत्य कही पीछे रह जाता है, 
शक्ति और अहं जब टकराता है। 
साक्षी इतिहास में  
गर जर्मनी की हार होती, 
तो हिटलर मिथक बन जाता 
सुशाशन और सुव्यवस्था का 
और खुलते यातना गृह  
गैस चेम्बरों के ... 
२८ नवंबर २०११ 
 -----------------------------------------. 
यातना गृह- 
हिटलर मर गया 
उसकी अवधारणा नही मरी  
अभी भी शेष है वह  
कितने ही मनुष्यों में 
हारा नही था हिटलर 
तत्कालीन विश्व विजेताओं से 
हराया था उसे यातना गृह की 
आहों ने  
क्योंकि, 
आततायी नहीं मरते 
मरती है यातनाएँ 
परावर्तित नहीं होती 
उनकी आत्माएँ। 
२८ नवंबर २०११ 
............................................................. 
एम्मा के नाम पाती  
एम्मा तुम्हारी ख़त्म हो शायद भटकन 
काश कि तुम समझ पाती 
कि सम्पूर्णता कहीं नहीं 
कोई स्त्री किसी पुरुष के लिए  
अंतिम नहीं 
और ना ही स्त्री के लिए  
पुरुष कोई अंतिम 
सब कुछ दिनों के बाद  
खोखले हो जाते है 
अनावश्यक फालतू चीजों की तरह 
हमारे लिए अनुपयोगी हो जाते है 
प्रेम एक रहस्य है 
जो खुलते ही ख़त्म हो जाता है 
इसीलिए शायद  
पति और पत्नी के बीच 
प्रेम फुर्र हो जाता है 
कुछ ही दिनों के बाद 
नन्ही चिड़िया कि भाँति 
पर एम्मा  
तुमने क्या पाया  
इस रहस्य को तोड़कर 
एक नहीं एकाधिक पुरुषों से 
अपना सम्बन्ध जोड़कर 
तुम्हीं ने खोया  
अपना तन, मन, धन  
और खुद भारी बेचैनी के बाद 
चैन कि नींद सोने से पहले  
और बाद में 
कितनी ही चैन कि नीदें  
तुम तोहफे में उन्हें दे गई 
जिन्हें तुम्हारे जीवन और मृत्यु से 
कोई सरोकार नहीं था 
और जिसे मतलब था  
उसे दिया तुमने धोखा, त्रास 
और अपने प्रेमियों  
को लिखे प्रेम पत्र 
क्या इसी जीवन के लिए  
जन्मी थी तुम 
और ऐसी ही मृत्यु 
चाही थी तुमने  
बोलो एम्मा 
१३ जून २०११ 
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नन्ही सी चिड़िया  
बहेलियों से सावधान  
होने के बावजूद  
जब फँस जाती है  
नन्ही सी चिड़िया  
किसी जाल में  
दूसरा शातिर बहेलिया  
उस पर दया दिखाता है 
उससे सहानुभूति  
जतलाता है 
और बताता है उसे 
कि वह कितनी नादान थी 
अपने हर जाल को 
वो रेशम की डोर बतलाता है 
यही वो चालें है 
जिनसे मर्द औरत को  
फुसलाता है 
१३ जून २०११ 
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भय है 
भय है 
शिथिल होने का  
परंपरा से चली रही  
परिपाटी के अंग होने का  
भय है 
मृत्यु का नहीं लम्बी वय का 
'पाश' रह रह कर  
तुम्हारी वो पंक्तियाँ याद आती है- 
' होना तड़प का  
सब सहन कर जाना 
घर से निकलना काम पर 
और काम से लौट कर घर जाना  
सबसे खतरनाक होता है 
हमारे सपनों का मर जाना'  
भय है 
इन्हीं सपनों के मर जाने का 
पूरी तरह सरकारी कर्मचारी बन जाने का 
भय है 
दलाली के धंधों को इतने 
करीब से देखते रहने के बावजूद  
चुपचाप सन्नाटे में घिरे रहने के बावजूद  
हर ख़ुशी से जुदा रहने के बावजूद  
अपने वजूद को कायम रखने 
के जज्बे के बावजूद  
भय है 
बहुत सी दीवारों के ढहने के बावजूद 
चंद कटीली झाड़ियों में उलझने का 
भय है 
मीठी सी नींद में बहने का  
भय है 
१३ जून २०११ 
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भोली सी चाहत  
तय होती है तमाम राहें  
हिम्मत से, हौसलों से 
ऐसा जानती थी मै 
अपने भोलेपन में  
हर सफल आदमी को  
बहुत मेहनती मानती थी मै 
अच्छा होता  
की यह भ्रम बना रहता 
सफेदपोशों का चेहरा  
छुपा रहता 
कम से कम 
उनमे शामिल होने की 
चाहत बनी रहती 
इस बंदरबाट के बीच भी 
शायद, 
एक दिन  
मै सफल हो जाऊँ 
काश  
मेरी भोली सी  
चाहत बनी रहती 
१३ जून २०११ 
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नई खेती 
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श्री रमा शंकर यादव "विद्रोही"

*
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।


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